सुप्रीम कोर्ट के सख्त निर्देशों और सरकारों को डांट-फटकार व चेतावनियों के बावजूद दिल्ली सहित उत्तर भारत के बड़े हिस्से में वायु प्रदूषण से निपटने को लेकर सरकारी तंत्र और जनप्रतिनिधियों में जिस तरह की उदासीनता और लापरवाही देखने को मिल रही है, वह हतप्रभ करने वाली है। शहरी विकास मंत्रालय से जुड़ी संसद की स्थायी समिति ने दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण के मुद्दे पर बैठक बुलाई थी, 29 में 25 सांसद बैठक से नदारद रहे। ज्यादातर वरिष्ठ अधिकारियों ने भी इसे तवज्जो नहीं दी। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण से निपटने के लिए प्रयासों के नाम पर जो भी किया जा रहा है, उससे सर्वोच्च अदालत भी संतुष्ट नहीं है। इसीलिए उसे कहना पड़ा है कि दिल्ली सरकार की सम-विषम योजना एक तरह से आधा अधूरा प्रयास है। सम-विषम योजना के पीछे मूल भावना को लेकर किसी तरह का कोई संदेह नहीं है, लेकिन जिस तरह से इसे लागू किया जाता रहा है, उससे इस पर सवाल खड़े होते हैं। आपत्ति का बड़ा कारण तो दोपहिया, तिपहिया वाहनों को छूट दी गई है। फिर महिलाओं को इससे अलग रखा गया है। अगर वायु प्रदूषण से निपटने के लिए कोई ठोस योजना लागू करनी है तो उसे सब पर लागू किया जाना चाहिए, तभी उनके नतीजे देखने को मिलेंगे। दोपहिया और तिपहिया से होने वाले प्रदूषण की भागीदारी कारों के प्रदूषण से काफी ज्यादा है। सम-विषम योजना से छूट के प्रावधान इसकी गंभीरता को कम करते हैं। सच्चाई यह है कि हम वायु प्रदूषण को लेकर केवल विलाप कर रहे हैं, लेकिन उससे निपटने के उपाय खोजने के लिए हमारे पास वक्त है, न इच्छाशक्ति।
वायु प्रदूषण से उत्पन्न गंभीर हालात पर अगर सर्वोच्च अदालत सक्रियता और कड़ा रुख नहीं दिखाती तो सरकारें शायद इतना भी नहीं करतीं और लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया जाता। फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट एयर पॉल्यूशन एंड चाइल्ड हेल्थ: प्रिसक्राइबिंग क्लीन एयर के हवाले से बताया गया है कि वर्ष 2016 में भारत में पांच वर्ष से कम वायु प्रदूषण के कारण मरने वाले बच्चों की संख्या एक लाख के करीब थी। यह संख्या विश्व में पांच वर्ष से कम आयु वर्ग के बच्चों की वायु प्रदूषण से होने वाली मृत्यु का पांचवा भाग है। इन मौतों में पांच वर्ष से कम आयु की बच्चियों का प्रतिशत भारत में 55 प्रतिशत के लगभग है व पांच से 14 वर्ष की आयु के बीच यह प्रतिशत बढ़कर 57 प्रतिशत के लगभग हो जाता है। (वर्ष 2016 में 5 से 14 आयु वर्ग के बच्चों की वायु प्रदूषण से होने वाली मौतें 7000 हैं, जिसमें से बच्चियों की संख्या 4000 के लगभग हैं)। यदि हम भारत की तुलना इसके अन्य पड़ोसी देशों से करें तो बांग्लादेश में 11,487, भूटान में 37, चीन में 11,377, म्यांमार में 5,543, नेपाल में 2,086, पाकिस्तान में 38,252 एवं श्रीलंका में 2016 में 5 वर्ष से कम मरने वाले शिशुओं की संख्या 94 है। प्रति लाख बच्चों पर यह आंकड़ा 96.6 बच्चियां व 74.3 बच्चे हैं, जो 5 वर्ष से कम आयु वर्ग में आते हैं। वहीं 5 से 14 आयु वर्ग में प्रति लाख पर 3.4 बच्चियां व 2.3 बच्चे हैं। भारत में बढ़ते प्रदूषण का स्तर एक चिंता का विषय है परंतु आज इतने सारे संसाधनों होने के बावजूद भी हम प्रदूषण के स्तर को कम कर पाने में नाकाम ही साबित हुए हैं। भारत, जो कि एक विश्व शक्ति बनने की ओर अग्रसर है, आज अफ्रीका के निम्न आय वर्ग के देशों के साथ, प्रदूषण नियंत्रण में नाकाम होने पर खड़ा है। हमारे देश के करीब एक दर्जन से अधिक शहर विश्व के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों की सूची में गिने जाते हैं। उत्तर-भारत का कानपुरÓ शहर वर्ष 2016 में विश्व का सबसे प्रदूषित शहर घोषित हुआ है। देश में नदियों के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुए हैं। हालांकि नदियों की सफाई हेतु कार्य योजना व कार्यक्रम बनाए गए हैं परंतु काम होता नहीं दिख रहा है। जहां हम पहले थे आज भी वहीं खड़े हैं। पर्यावरण से जुड़े न्यायिक मामले देखने हेतु हमारे देश में एक राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण भी कार्य रहा है। साथ ही कई कार्यक्रम समय-समय पर सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे हैं। इसके बावजूद भी पर्यावरण के प्रति चेतना जगाने में समाज असफल रहा है।
वर्षों से चल रहे प्रदूषण नियंत्रण कार्य का नतीजा सिफर